Saturday, November 24, 2007

घटाटोप तनहाई

बहुत रात हो चुकी थी। मीटिंग कुछ ज्यादा ही लंबी खिंच गई। आरा शहर में बिजली का हाल ऐसे ही है, सो जाड़ों में नौ बजते-बजते लोगों के दरवाजे बंद होने लगते हैं, साढ़े नौ बजते-बजते सड़कें सुनसान हो चुकी होती हैं। अजित गुप्ता और मैं बस स्टैंड से निकलते ही सोच में पड़ गए कि किसका दरवाजा खटखटाया जाए। अजित का घर इसी शहर में था लेकिन पता नहीं क्यों घर जाना उन्हें पसंद नहीं था। मेरी चिंता नींद से ज्यादा भूख को लेकर थी। बस आधा घंटे पहले भी आ गई होती तो स्टैंड पर लिट्टियां सेंकने वाले बैठे मिल गए होते।

कुछ देर सोच-विचार के बाद अजित गुप्ता इस नतीजे पर पहुंचे कि घर चलने के अलावा कोई चारा नहीं है। घर लगभग खंडहर ही था। बाहर एक कोठरी थी, जिसका ताला अजित ने मालिक-मुख्तियार की तरह कमर की करधनी में बंधी चाभी निकालकर खोला। एक पतली चौकी पर पतला सा गद्दा और मोटा सा एक चद्दर रखा हुआ था। घर के मुख्य दरवाजे पर बहुत सांकलें पीटने और किवाड़ भड़भड़ाने के बाद भीतर से किसी के उठने और कुछ बुदबुदाने की आवाज आई।

भीतर से सिटकिनी खुली और अजितबाबू तशरीफ ले गए। थोड़ी देर बाद वे दो-तीन रोटियां और एक छोटे भगोने में आलू टमाटर की बची-खुची सब्जी लिए नमूदार हुए, जिसे दोनों लोगों ने खाया और ढेर सारा पानी पीकर सोने के इंतजाम में जुटे। चौकी दो लोगों के सोने लायक नहीं थी, सो हुआ कि अजित जी घर में सो जाएंगे। उनके जाने के थोड़ी देर बाद कुंडी बजी और एक बूढ़ी खरखराती आवाज ने कहा- ए बाऊ, बर्तनवां उठा द। भगोना और गिलास देते हुए मैंने 'प्रणाम चाची' कहा तो भीतर से आशीर्वाद आना दूर, किसी पर्देदार महिला ने मेरे हाथ से बर्तन इतने झटके से खींच लिए, जैसे उसके साथ मैंने कोई बदतमीजी की हो। दरवाजा भी इतने जोर से बंद हुआ कि मुझे लगा, इस घर में मेरा बिल्कुल ही स्वागत नहीं है।

थोड़ी सी बेहयाई और जिद के बिना होलटाइमरी हो ही नहीं सकती, सो मैंने सोचा कि कल मैं चाची से बात जरूर करूंगा, भले ही वे मुझे बीच में ही धक्के मारकर भगा दें। आखिर अजित गुप्ता उनके बेटे हैं, जो खुद एक पुराने होलटाइमर हैं। चाची हमारे कामकाज के बारे में कुछ तो जानती ही होंगी। अगले दिन मैंने अजित जी को अपनी इच्छा बताई, लेकिन उन्होंने कहा कि जल्दी निकलना है, बाद में फिर कभी बात कर लीजिएगा।

यह मौका महीनों बाद आया। दोपहर के वक्त अजित जी मुझे सीधे घर के भीतर ही लिवाते चले गए। काफी बड़ा, लेकिन ढहता हुआ घर था। अजित बाबू के पिता अमीर आदमी थे और लंबा-चौड़ा मकान उन्होंने बनवा रखा था। लेकिन उनकी मृत्यु काफी साल पहले हो चुकी थी और मरने से पहले ही उनका मन इस घर से हटकर कहीं और जुड़ गया था। कुल मिलाकर उनकी कोई अच्छी, सम्मानजनक याद इस घर की टूटती-बिखरती दीवारों के बीच नहीं बची हुई थी।

बहुत मैली, सफेद सूती साड़ी पहने लगातार कुछ बुदबुदाती हुई वे लगभग वैसी ही साड़ी के पर्दे वाले बिना दरवाजे के एक कमरे से बाहर झांक रही थीं। उनके जितना तनहा इन्सान मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा- न इससे पहले, न इसके बाद। उनके शरीर पर सफेद दाग थे, जो अब दाग न रहकर पूरी त्वचा का ही रंग बन चुके थे। शायद इन दागों की वजह से ही पति ने उनका तिरस्कार किया था और जीवन असमय ही खुद उसका भी तिरस्कार कर चुका था।

वे चौबीसो घंटे घर में अकेली रहती थीं। उनसे बातें सिर्फ झड़े पलस्तर वाले घर की नंगी ईंटें या शायद कभी-कभी छत की मुंडेर पर आ बैठने वाली चिड़ियां ही करती थीं। वे हमेशा कुछ न कुछ बोलती रहती थीं और बीच-बीच में न जाने क्या सोचकर हंस भी लेती थीं। कभी न भूलने वाली, खुद को ही संबोधित, रुलाई जैसी उनकी हंसी। आखिरी उम्मीद, उनकी जिंदगी की आखिरी डोर अपने छोटे बेटे अजित कुमार गुप्ता के साथ बंधी थी- जो कुछ ही महीने पहले बाइस महीने की जेल काटकर बाहर आए थे। बड़े बेटे का अपना अलग परिवार था। पार्टिशन से अलग किया गया घर का एक हिस्सा- निकासी के दरवाजे समेत- उसके कब्जे में था।

मैंने अजित से पूछा कि इनका यह हाल कबसे है? उन्होंने बताया कि 'थोड़ा-बहुत बुदबुदाती तो पहले भी थी लेकिन मेरे जेल जाने के बाद से इसकी हालत काफी बिगड़ गई।'

मैंने अजित से कहना चाहा कि कम से कम जब आरा शहर में हों तब तो उन्हें अपने घर में रहना ही चाहिए। लेकिन इतना कहने की हिम्मत भी मेरी नहीं हुई। उनके पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता बनने की सकारात्मक वजह जो थी सो थी, लेकिन उतनी ही ताकतवर इसकी एक नकारात्मक वजह भी थी। वह यह कि इतनी हताशा भरे घर में वे रहते तो मर जाते या पागल हो जाते। घर से दूर रहकर ही वे शायद खुद को बचाए हुए थे।

मेरे आरा में रहते चाची के घर में उम्मीद की एक किरण अजित बाबू के विवाह के रूप में फूटी। सीवान की रहने वाली एक दलित कार्यकर्ता एक दिन बहू बनकर उनकी देहरी में घुसीं। जिंदगी का नरम-गरम उन्होंने काफी देख रखा था लिहाजा कम से कम शुरू के कुछ महीनों में चाची की बीमारी से या घर की विपन्नता से कोई विशेष असुविधा उन्हें होती नहीं मालूम पड़ी। अलबत्ता विवाह के थोड़े समय बाद ही पति-पत्नी में कुछ मनमुटाव दिखे और धीरे-धीरे दोनों की ही पार्टी से दूरी बनने लगी। शायद नया परिवार बनते ही गरीबी की दिमागी शक्ल नियति से बदलकर मजबूरी की हो गई थी, जिसके लिए वे सहज ही पार्टी को जवाबदेह समझने लगे थे।

बहरहाल, वह एक अलग किस्सा है। पंद्रह साल बाद उस घर की याद मेरे जेहन में सिर्फ चाची के विकट अकेलेपन के साथ जुड़ी है। प्रमोद भाई के यहां आजकल जिस पोस्टमॉडर्निज्म का चर्वण चल रहा है, उसकी नींव डालने वाले मिशेल फुको ने आधुनिकता के अतार्किक पहलुओं की धज्जियां उड़ाते हुए सुनबहरी जैसी बीमारियों का हवाला दिया है। इनके बारे में सभी जानते हैं कि ये छूत की बीमारियां नहीं हैं, फिर भी बिना दिल पर कोई बोझ लिए वे इनसे ग्रस्त लोगों के करीब नहीं जाते और उन्हें तनहाई में मरने के लिए छोड़ देते हैं। नहीं जानता कि पोस्टमॉडर्निज्म क्या है, लेकिन चाची को याद करके फुको के प्रति मेरे मन में तार्किक श्रद्धा उमड़ती है।

Thursday, November 22, 2007

पटरा स्क्रिप्ट और हॉलीवुडिया ईसाइयत

परसों रात हॉलीवुड की नई चर्चित रिलीज ब्योवुल्फ का प्रीमियर शो देखने का मौका मिला। हैरी पॉटर सीरीज और लॉर्ड ऑफ रिंग्स की ही तर्ज पर यह फिल्म उत्तरी यूरोप के मिथकों और पुराने टोने-टोटकों को भुनाने की कोशिश करती है। ब्योवुल्फ अंग्रेजी भाषा की लिखित रूप में प्राप्त हुई सबसे पुरानी रचना है। 1000 ई. के आसपास तैयार की गई इसकी एक प्रतिलिपि ब्रिटेन में कहीं खुदाई के दौरान प्राप्त हुई थी।

भाषिक संरचना से अनुमान लगाया जाता है कि यह सातवीं सदी के आसपास की कोई मौखिक रचना होगी। यह वह समय था जब जर्मनी के उत्तरी और डेनमार्क के दक्षिणी इलाकों से सैक्सन कबीले एकजुट होकर इंग्लैंड का एक बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले चुके थे। उनकी जुबान पर वहां की आदिम आंग्ल जाति का रंग चढ़ चुका था, लेकिन उनका भावनात्मक संसार उस समय भी उत्तरी यूरोप के ही बाहर से सर्द, जमे हुए लेकिन भीतर से जोशीले भावबोध से ओतप्रोत था।

इस रचना के मूल रचनाकार के बारे में कोई जानकारी नहीं है, न ही उस प्रतिलिपिकार के बारे में, जिसकी उतारी हुई नकल खुदाई में प्राप्त हुई थी। लेकिन इतना तय है कि प्रतिलिपिकार का भावबोध मूलतः ईसाई धर्म से निर्मित था और नकल तैयार करने के दौरान उसने मिथकीकृत समुद्री डकैत ब्योवुल्फ को लगभग ईसा जैसा बना डाला।

इस फिल्म में ब्योवुल्फ के ईसाईकरण की प्रक्रिया को और भी आगे बढ़ाया गया है। प्रतिलिपि के रूप में प्राप्त मूल रचना में ब्योवुल्फ राजा ह्राथगर के राज को तबाह करने वाले दानव ग्रेंडेल, उसकी मां और एक बेनामी ड्रैगन का वध करता है, जबकि फिल्म में उसे (रे विंस्टन) ग्रेंडेल की मां (ऐंजेलिना जोली) और ड्रैगन को एक करते हुए बताया गया है कि मनुष्य की वासना ही दरअसल उसे तबाह करने वाला सबसे बड़ा शैतान है। प्रीमियर से पहले भ्रष्ट अनुवाद और वर्तनी वाली जो सिनॉप्सिस हमें मुहैया कराई गई थी, उसमें बताया गया था कि ग्रेंडेल के वध के बाद उसकी मां ब्योवुल्फ को सजा देने के लिए अपने फंसाऊ सौंदर्य के इर्द-गिर्द एक भयानक षड्यंत्र रचती है। लेकिन फिल्म देखने के दौरान इस षड्यंत्र का कोई सुराग नहीं मिल सका।

बहरहाल, इस फिल्म में ऐंजेलिना जोली और रे विंस्टन की सांचे में ढली निर्वस्त्र देहयष्टि के अलावा जबर्दस्त एनीमेशन, सिनेमैटोग्राफी और साउंड क्वालिटी ने भी मुझे प्रभावित किया- लेकिन फिल्म में चकित करने वाली बातें सिर्फ दो लगीं, और दोनों नकारात्मक। एक तो क्रॉस और नर्क की आग जैसे ईसाई प्रतीकों की बहुलता और वासना को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु मानने वाली ईसाई नैतिकता का अनठेल इस्तेमाल, और दूसरा- मुंबइया फिल्मों को भी मात करने वाली लद्धड़ स्क्रिप्ट, जिसमें आप कहीं, किसी जगह कोई नोडल प्वाइंट आने की उम्मीद करते ही रह जाते हैं और पूरी फिल्म एक इमोशन से दूसरे इमोशन, एक ऐक्शन से दूसरे ऐक्शन तक होती हुई खत्म भी हो जाती है।

ठीक ऐसा ही हाल मैंने हैरी पॉटर सीरीज की फिल्मों का भी देखा है। अब तक देखी गई इस सीरीज की पांचो फिल्मों से सिर्फ पहली और तीसरी को छोड़कर बाकी तीनों में नोडल प्वाइंट विकसित ही नहीं होने पाता। ऐसा लगता है कि एडीटर के पास तीन-चार घंटे का फुटेज था, जिसमें से उसने ऐक्शन-ऐक्शन निकालकर बाकी सारा हिस्सा बाहर फेंक दिया। अब, या तो फिल्म का स्क्रिप्ट राइटर ही कमजोर रहा हो और उसके दिमाग में फिल्म की समग्र तस्वीर नदारद रही हो, या फिर सारा कुछ एडीटर पर ही छोड़ दिया गया और प्रोड्यूसर ने उसे साफ तौर पर निर्देश दे रखे हों कि फिल्म को यूरोप और अमेरिका में ही नहीं, पूरी दुनिया में बेचना है, लिहाजा दो घंटे का सेक्स, ऐक्शन और वायलेंस निकालकर बाकी सारा फेंक दो।

आश्चर्य होता है कि इसी हॉलीवुड में कभी गन्स ऑफ नैवरोन जैसी ऐक्शन पैक्ड फिल्में भी बनती थीं, जिनकी स्क्रिप्ट में कहीं एक शब्द इधर से उधर करने की गुंजाइश नहीं लगती थी और क्लाइमेक्स बिना किसी झोल के, बिल्कुल सांचे में ढला हुआ आता था। शायद इसकी वजह उनके सीमित टार्गेट ऑडिएंस में रही हो। लेकिन सबसे कम-अक्ल दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली और करोड़ों डालर का मुनाफा पीटने वाली ऐसी झोलदार फिल्मों में ईसाइयत के लिए गुंजाइश कहां से निकाल ली जा रही है? क्या इसे धर्मयोद्धा बुश के नेतृत्व में चल रहे 'आतंकवाद विरोधी युद्ध' की देन माना जाए?

Sunday, November 18, 2007

बियाहुती को दे देना

करीब पांच पुश्त पहले के सभी पुरुषों के नाम मेरे गांव में ज्यादातर लोगों को पता होंगे, और उनमें से हर-एक से जुड़ा कोई न कोई किस्सा भी। लेकिन मेरी तीसरी ही पुश्त में पड़ने वाले एक सज्जन ऐसे हैं, जिनका नाम उनसे सीधा खून का रिश्ता रखने वालों को भी याद नहीं है। दरअसल, यह सहज विस्मृति का मामला नहीं है। गांव में उनका नाम सचेत ढंग से भुलाने की कोशिश की गई है, जो कानाफूसियों की निरंतरता के बावजूद पता नहीं कैसे कामयाब भी हो गई।

गर्मियों की आलस भरी दुपहरों में जब औरतों का जमावड़ा किसी के निंदारस में डूबा रहता तो कभी-कभी उनका जिक्र भी आ निकलता। लेकिन बातचीत में उनकी याद उनका नाम लेकर नहीं, किसी संबंध के जरिए- जैसे 'तिलकधारी पंडित के भाई' के रूप में की जाती। सोने के भारी गहने पहनने वाली एक औरत- तिलकधारी पंडित की मंझली बहू- बाकी औरतों के लिए खासी ईर्ष्या का विषय बनी रहती और उसी के बहाने औरतें 'उनको' भी याद कर लिया करतीं।

सुविधा के लिए उनका नाम हम बटेस्सर रख लेते हैं। बटेस्सर पंडित का बचपन और जवानी कैसी थी, वे कहीं नौकरी-चाकरी करते थे या खेती-बाड़ी में ही लगे हुए थे, इस बारे में अब कहीं कोई सूचना बाकी नहीं है। अपने तमाम हमउम्र लोगों की तरह उनका भी शादी-ब्याह हुआ था और उनकी पत्नी बुढ़िया होकर मेरे छुटपन में मरी थीं। उनकी शक्ल मैंने नहीं देखी क्योंकि काफी समय पहले से वे चार-पांच कोस दूर अपने मायके में रह रही थीं।

बटेस्सर पंडित की शादी हुई, गौना आया, और गौने के कुछ महीने बाद ही वे घर से लापता हो गए। इस भारी आपदा को पता नहीं क्यों उनके घर में काफी हल्के ढंग से लिया गया। उनके छोटे भाई तिलकधारी पंडित ने संस्कृत माध्यम से शास्त्री की परीक्षा पास की और आजमगढ़ शहर की क्षत्रिया पाठशाला में पढ़ाने लगे। चालीस-पचास के दशक में गांव में किसी के घर कुछ नकदी आमदनी आना खुद में बड़ी नियामत थी। लेकिन मास्टरी में इतने पैसे न तब मिलते थे, न अब मिलते हैं कि अचानक किसी की पहचान छोटे आदमी से बड़े आदमी की हो जाए।

तिलकधारी पंडित के साथ जब देखते-देखते ऐसा ही हो गया तो गांव में लोगों को इसका राज पता करने की धुन सवार हुई। उनकी यह कोशिश काफी समय बीत जाने के बाद रंग लाई, जब जैसे-तैसे करके तीजू कहार ने भेद खोला कि तिलकधारी पंडित की अमीरी की वजह उनके बड़े भाई बटेस्सर पंडित हैं।

तीजू एक दिन कहीं दूर के गांव में बहंगी पहुंचाकर लौट रहे थे और पड़ोस के बाजार में पानी पीने के लिए रुक गए थे। तभी दुकान में से किसी फुसफुसाती आवाज ने उनका नाम पुकारा। इधर-उधर देखकर उस तरफ नजर फेरी तो पाया कि घूंघट काढ़े, शाल ओढ़े एक पर्देदार औरत वहां बैठी हुई है। पहले तीजू ने उसे अनदेखा किया, फिर सोचा कि शायद गांव की ही कोई औरत हो और उनसे कुछ पूछना चाहती हो। पास गए, पूछा, 'दुलहिन कुछ कह रही हैं?'

एक अजीब सी जनखानुमा आवाज पर्दे से बाहर आई- 'तीजू, हम हैं, बटेस्सर '।

'अरे भइया, आप? ऐसे!'

बटेस्सर बोले कि अब ऐसे ही है। पता चला कि घर से भागे बटेस्सर पंडित ने कहीं जाकर अपना यौन परिवर्तन करा लिया था और हिजड़ों के साथ रहने लगे थे। तीजू से कहकर उन्होंने अपने छोटे भाई तिलकधारी पंडित को गांव से बुलवाया। वे बाजार आकर उनसे मिलने के लिए तैयार नहीं थे। आखिर वे एक शिक्षक थे और गांव-पुर में उनकी भी कोई इज्जत थी। लेकिन थके हुए तीजू ने एक ही दिन में बाजार का दूसरा चक्कर लगाकर जब उन्हें बताया कि बटेस्सर भइया उन्हें कुछ देना चाहते हैं तो जैसे-तैसे वे राजी हो गए।

तीजू गांव की प्रजा थे और उन्हें पता था कि पंडिताने की तरफ से साफ चेतावनी मिलने के बाद जुबान खुलने का नतीजा क्या होगा। लेकिन जुबान तो जुबान है, कुछ समय बीतने के बाद फिसलते-फिसलते फिसल ही गई।

तीजू का कहना था कि राधेश्याम हलवाई की दुकान के पिछवाड़े घूंघट काढ़े बैठे बटेस्सर पंडित का चेहरा उन्होंने अंत-अंत तक नहीं देखा। छोटे भाई को देखकर उन्होंने जो रोना शुरू किया तो हिचकियां रुकने को ही न आईं। अलबत्ता उनसे बात करते हुए तिलकधारी पंडित की आफत आई हुई थी। कोई देख न ले, किसी को पता न चल जाए, कहीं ये ऐसे ही बार-बार आने-जाने न लगें। दो हाथ दूर रूखे बैठे रहे, घर-परिवार की हाल-चाल तक नहीं बताई। बार-बार यही कहते रहे कि अब तुम्हारी अलग जिंदगी है, हमारी अलग।

चलते-चलते एक पोटली बटेस्सर पंडित ने तिलकधारी पंडित के हाथ में सौंपी और कहा- 'यह मेरी बियाहुती (ब्याहता पत्नी) को दे देना।'

तीजू ने अपने जीवन में सिर्फ एक बार, नशे की हालत में या भावुक मानसिकता में किसी एक आदमी को (पता नहीं किसको) यह किस्सा बताया था कि वह पोटली बहुत भारी थी। शायद उसमें कुछ सोना-चांदी रहा हो। पोटली अगर हल्की होती तो शायद बियाहुती के पास पहुंच भी जाती। भारी थी, सो कहां पहुंचनी थी। वह जमीन से उभरते हुए एक आदमी को और ज्यादा तेजी से उभारने के काम आ गई।

ससुराल में देवरों-देवरानियों के राज में दाने-दाने और सूत-सूत की मोहताज हुई बटेस्सर पंडित की ब्याहता अपना पहाड़ जैसा बाकी जीवन काटने मायके चली गईं, जहां बटेस्सर पंडित के लिंग परिवर्तन के बाद भी उन्हीं के नाम का सिंदूर पहनते उनकी मृत्यु हुई। उनके पति के साथ-साथ खुद उनके नाम की विस्मृति में भी पूरे गांव की भागीदारी रही, लेकिन गांव की औरतें किसी ऐंठन की शक्ल में उनके दुख की छाप उनकी मौत के काफी साल बाद तक बचाए हुए थीं।

Friday, November 16, 2007

वनगंध

एक बहुत चौड़ी नहर का पानी टर्बाइनों पर गिरकर बिजली बनाता था। नहर के इस पार बस्ती और उस पार जंगल था। एक पतला सा रास्ता नहर के बांध से जंगल में उतरने के लिए बना था, जिससे कभी लकड़ी तोड़ने तो कभी किसी और काम के लिए लोग जंगल में उतरते थे। दिशा-पानी के लिए उधर जाने का रिवाज नहीं था क्योंकि वह तो बिल्कुल ही जंगल था, कभी कुछ भी हो सकता था। कुछ-कुछ ऐसा ही डर उस तरफ भी था। पानी की उस चौड़ी लकीर को अपनी चौहद्दी मानकर जानवर इस तरफ आने से परहेज करते थे, हालांकि सफाई के लिए नहर पर एक पतले पुल की व्यवस्था भी थी, जिसका इस्तेमाल वे इधर आने में कर सकते थे।

पतले रास्ते से जंगल में उतरो तो थोड़ी दूर तक यह बस्ती जैसा ही नजर आता था। नहर में बहकर आने वाली लकड़ियां और करकट नहर बनने के बाद से ही वहां पड़े थे। और जानवरों की हड्डियां, जो कभी जंगल से नहर पर पानी पीने आए होंगे और धारा में खिंचकर डूब गए होंगे। हर सुबह टर्बाइन से ठीक पहले लगी जालियों की सफाई करते हुए ये सारी चीजें नहर से निकाली जाती थीं और जंगल की तरफ फेंक दी जाती थीं। उनकी सड़ांध जंगल में काफी दूर तक पीछा करती थी।

थोड़ा ही आगे जाने पर एक गहरा खड्ड आता था और रास्ता वहीं अचानक खत्म हो जाता था। चाहो तो खड्ड के किनारे-किनारे चलते चले जाओ। ऐसे नहर और बस्ती से तुम्हारी सुरक्षित दूरी बनी रहेगी। लोग अक्सर ऐसा ही करते थे। गर्मियों के दिनों में लकड़ियां तोड़ने और बकरियां चराने के लिए यह इलाका बिल्कुल सही था। यहां वन विभाग ने साल के पेड़ लगा रखे थे और छिटपुट कुछ झाड़ियां भी उगी हुई थीं। गौर से देखने पर कोई कांच का टुकड़ा, कोई फटा हुआ ताश का पत्ता, किसी जूते का तल्ला या कोई चिथड़ा नजर आ जाता था। लोग आपस में जिस जंगल जाने की बात करते थे वह यही था, लेकिन यह जंगल नहीं था।

जंगल उधर था, खड्ड के उस पार, जहां पहुंचने के लिए पेड़ों की जड़ें पकड़ते हुए लगभग घिसटकर नीचे उतरना पड़ता था। बारिश के दिनों में यहां पानी भरा रहता होगा, लेकिन अभी यहां सिर्फ पतली सी एक धारा बह रही थी। कहां से आ रहा होगा यह पानी, कहां जाता होगा? नहर तो बहुत बाद में बनी है। उससे तो इसका कोई रिश्ता हो नहीं सकता। क्या घुटनों-घुटनों पानी पार करके जंगल में जाने का कोई मतलब है... वह भी बिना किसी हथियार, बिना किसी सुरक्षा के?

खड्ड की नम तली में गाय-भैंसों के खुरों के निशान नजर आते हैं। शायद जंगल के उस पार कोई गांव है, जहां से जानवर चरने के लिए यहां तक आते हैं। किसी भी सूरत में इस जंगल की चौड़ाई दो-तीन किलोमीटर से ज्यादा नहीं होगी। क्या घुसकर देखें कि उस पार कहां निकलते हैं? अब चलना है तो चलना है। क्या इतना सोच-विचारकर कोई जंगल में उतरता है?

एक अजीब गंध थी- कचर हिरियाइन गंध, जो उधर तक पहुंचती जरूर होगी लेकिन पता नहीं क्यों पहले कभी महसूस नही हुई थी। कंटीली झाड़ियां, ऊंची घासें और इक्का-दुक्का ऊंचे पेड़ों के नीचे आपस में उलझे हुए से छोटे-छोटे पेड़। यहां रास्ता किधर से होगा? नहर से दो सौ गज दूर भी नहीं आए और एक जमाना गुजर गया सा लगता है। जमीन पर गिरा हुआ एक सूखा सड़ा खोखला पेड़। बगल में एक बहुत ऊंची दीमक की बांबी। मिनिएचर में किसी पुराने खंडहर जैसी संरचना, जिसे दीमक भी न जाने कब के छोड़कर जा चुके हैं।

यहां समतल कहीं नहीं है। उड्ढे हैं और गड्ढे हैं हर तरफ। जंगल की अपनी जमीन। लेकिन रास्ता यहां भी है। क्या दुनिया में अब ऐसी कोई जगह नहीं बची है, जहां कोई रास्ता न हो? कभी न कभी कोई न कोई हर जगह से गुजरा जरूर है। आदमी न सही, जानवर ही, लेकिन रास्ता बाकायदा है। पेड़ों, झाड़ियों और घासों के बीच बनती-टूटती, ऊपर-नीचे होती एक लकीर। क्या इसी पर होते हुए उस तरफ जंगल के पार निकल जाएं? लेकिन यह तो एक बस्ती से दूसरी बस्ती में जाना होगा। जंगल जाना नहीं होगा।

वह खुद में खुद को छिपाए हुए था। कोई ऐसा फल-फूल, कोई कंद-मूल वहां नहीं था, जिसे खाकर इन्सान बारह-चौदह साल तो क्या चार-छह घंटे भी गुजार सके। मजबूत जड़ों वाले जंडइल बेनामी पेड़ ही वहां खुद को जिंदा रखे हुए थे। जरा सी रोशनी के लिए उन्हें अपनी फुनगियों के लिए जगह अपने तमाम भाई-बंदों के बीच से, उन्हें दबाते-खरोंचते हुए बनानी पड़ती थी। जरा सा ढीला पड़ते ही कोई उन्हें खत्म कर देता था। ऐसे में वे क्या फूलते और क्या फलते। लेकिन फिर भी वहां आवाजों का अपना एक अलग संसार था।

सघन खामोशी में गूंजती लंगूरों, सियारों, गिलहरियों, हुदहुदों, चीलों और जंगली मैनाओं की आवाजें, कहीं दूर से आती ट्रक की दबी-बुसी घरघराहट को किसी और ही ग्रह की आवाज बनाती हुई । नहर, पॉवर हाउस, सड़क और तमाम नए-पुराने इन्सानी सरंजामों से बेखबर, उन्हें अपने हाल पर छोड़ती हुई सीली, अंधेरी, कचर हिरियाइन गंध वाली जंगल की अपनी दुनिया, जो दिनोंदिन सिमटते जाने के बावजूद न जाने कितने करोड़ वर्षों से ऐसे ही चल रही है...जो न जाने कितने साल और चल पाएगी।

Thursday, November 15, 2007

जूड़े की वापसी

याद नहीं आता कि किसी औरत को- बवालटलाई के लिए नहीं- बाकायदा सुंदर दिखने के लिए जूड़ा बांधे सड़क पर कब देखा था। 'ओम शांति ओम' फिल्म पर अभय तिवारी और अन्य मित्रों ने अपनी समीक्षा में दीपिका पादुकोण की काफी तारीफ की है लेकिन लगभग एक-सी दिखने वाली हीरोइनों और महिला मॉडलों की शक्ल से इस फिल्म की दीपिका को जो अकेली चीज बिल्कुल अलग करती है, वह उसका ठीक वैसा ही जूड़ा है, जैसा साठ दशक की फिल्मों में जब-तब वहीदा रहमान और सत्तर दशक में अक्सर हेमा मालिनी बांधा करती थीं। दीपिका के फिगर्स के अलावा उसके चेहरे पर मौजूद ग्रेस भी हेमा के बजाय वहीदा के कहीं ज्यादा करीब हैं, लिहाजा सचेत ढंग से 'ड्रीमी गर्ल' टाइटल से उसे हेमा जैसी दिखाने की कोशिश ज्यादा कामयाब नहीं हो पाई है।

जिस जमाने में बतौर हेयरस्टाइल जूड़ा फैशन में आया था, उसके साथ बाकायदा एक संस्कृति जुड़ी हुई आई थी। इसकी संगत उल्टे पल्ले की साड़ी के साथ बनती थी, जो शहरी-कस्बाई स्कूलों की मास्टराइनों से होती हुई धीरे-धीरे आम औरतों तक विस्तार पा रही थी। अस्सी के दशक की शुरुआत तक मेरे दिमाग में औरतों की सिर्फ दो छवियां थीं- सीधे पल्ले में चोटी किए सिर पर आंचल डाले घूंघट में (बकौल जयशंकर प्रसाद- शशिमुख पर घूंघट डाले आंचल में दीप छिपाए) या बिना घूंघट की पारंपरिक स्त्रियां (जिस श्रेणी में मेरी मां आती थी) और उल्टे पल्ले में जूड़ा बांधे आंचल को कभी जूड़े पर रखती कभी कंधे पर लपेटती आधुनिक स्त्रियां (बीएड करके एक स्कूल में पढ़ाने वाली मेरी जीजी मेरे लिए इस श्रेणी का प्रतिनिधित्व करती थीं)। लड़कियों की शाश्वत पोशाक शलवार-फ्रॉक या शलवार-कमीज हुआ करती थी।

सूट पहने लड़कियां और औरतें मैंने पहली बार सन् 1981 में दिल्ली में देखीं, जब घर के कलह से परेशान होकर इंटरमीडिएट का इम्तहान देते ही कहीं कोई नौकरी खोजने के लिए मैं यहां चला आया था। यह मुहिम कामयाब नहीं हुई और लगा कि मरते-जीते पढ़ाई पूरी कर लेना ही ठीक रहेगा। लिहाजा महीने भर के ऐडवेंचर के बाद आजमगढ़ की गाड़ी पकड़ ली गई, लेकिन इस बीच मन की दुनिया तो पूरी तरह बदल चुकी थी। इस नई दुनिया में आधुनिक लड़कियों और औरतों की पोशाक सिर्फ और सिर्फ सूट था। आधुनिक और पारंपरिक स्त्री की छवियां अब सीधे पल्लू वाली साड़ी और सूट के द्वैत में सिमट चुकी थीं और उल्टे पल्लू की साड़ी की जगह सिर्फ टेस्ट चेंज तक सिमटकर रह गई।

मजे की बात यह कि इस नए द्वैत में जूड़े के लिए कोई जगह नहीं रह गई थी। न सीधे पल्लू वाली साड़ी में, न सूट में। मौके-बेमौके पहनी जाने वाली उल्टे पल्लू वाली साड़ी में सबसे अच्छी फबन खुले बालों या तरह-तरह के सुंदर बनावटों वाले हेयरबैंड की बनने लगी। खास सजावटों के लिए बनाई जाने वाली हेयर स्टाइलों में जूड़े जैसी छवियां जब-तब जरूर दिखीं लेकिन आधुनिकता के एक मूल्य के साथ उसका जुड़ाव अब बीत चुका था। ऐसे में एक आम दर्शक की तरह दीपिका के जूड़े ने मुझे सिर्फ चौंकाया नहीं, एक बीते दौर की याद भी दिलाई, जिसका दखल वहीदा रहमान और हेमा मालिनी के ही नहीं, गांव से निकलकर शहर में गई बहुत सामान्य पृष्ठभूमि वाली मेरी बहन तक के जीवन में हुआ था।

आज 'ओम शांति ओम' की शांतिप्रिया की शक्ल लिए दीपिका के असर में लड़कियों के फैशन में अगर जूड़ा वापस लौटता है तो भी यह सिर्फ स्वाद बदलने की कसरत जैसा होगा। नए ढब के जीवन के लिए नई किस्म की पोशाक और चाल-ढाल अपनाने की जो गरिमामय मूल्यवत्ता इसके साथ जुड़ी थी, वह अब दुबारा कहां वापस आने वाली है।

Wednesday, November 14, 2007

पुरुरवा-उर्वशी और डीडी कोसांबी

1951 में दामोदर धर्मानंद कोसांबी ने उर्वशी-पुरुरवा प्रसंग से संबंधित 18 ऋग्वैदिक ऋचाओं को रोमन लिपि में प्रकाशित किया और साथ में सरसरी टिप्पणी के साथ इनका शब्दानुवाद भी दिया। ठीक यहीं से शुरू हुई उनकी खोज का नतीजा था इसके दस साल बाद आई उनकी कालजयी कृति 'मिथ ऐंड रियलिटी' का दूसरा अध्याय 'उर्वशी ऐंड पुरुरवस'।

अध्याय की शुरुआत कालिदास के नाटक 'विक्रमोर्वशीयम्' के सार-संक्षेप की प्रस्तुति से होती है, जिसमें उर्वशी को इंद्र के दरबार की नर्तकी माना गया है। नृत्य के समय उर्वशी के मुंह से इंद्र के लिए 'पुरुषोत्तम' की बजाय गलती से 'पुरुरवस' निकल जाने के एवज में उसे मृत्युलोक जाने की सजा सुनाई जाती है। यहां मात्र एक साल में समाप्त हो जाने के लिए अभिशप्त उर्वशी और पुरुरवा का प्रेम इस नाटक की जटिल कथावस्तु का आधार बनता है। इस किस्से का सार-संक्षेप प्रस्तुत करके कोसांबी सीधे शतपथ ब्राह्मण, और वहां से ऋग्वेद की तरफ मुड़ जाते हैं, जो उर्वशी के मिथक का उद्गम स्रोत है।

ऋग्वेद में पुरुरवा और उर्वशी के बीच बातचीत बिना किसी पूर्वपीठिका के अचानक शुरू हो जाती है- 'आह, हे पत्नी, अपना यह हठ छोड़ दो। अरे ओ हृदयहीन, आओ हम प्रेमालाप करें। हमारे मंत्र यदि अनकहे रह गए तो आने वाले दिनों में वे निष्फल हो जाएंगे।'

उर्वशी- 'तुम्हारे प्रेमालाप से मुझे क्या लेना? उषा की पहली किरण की तरह मैं उस पार जा चुकी हूं। हे पुरुरवस, अपनी नियति में लौट जाओ। मुझे पकड़ना उतना ही कठिन है, जितना हवा को पकड़ना।'

लेकिन पुरुरवा अपने 'नायकोचित दृढ़निश्चय' और 'लक्ष्य की तरफ तीर की तरह बढ़ने' की बात करता है। तब उर्वशी कहती है, 'दिन में तीन बार अपने शिश्न से मुझे भेदते हुए तुमने मुझे गर्भवती बना दिया है, हालांकि इसके प्रति मैं अनिच्छुक थी। पुरुरवस, मैंने तुम्हारी आकांक्षाओं के आगे समर्पण किया। हे नायक, उस समय तुम मेरे शरीर के राजा थे।'

पुरुरवा कहता है, 'वह गिरती हुई बिजली की तरह कौंधी, मुझे प्यासे पानियों में लेती गई, पानी में से एक सुंदर लड़का जन्मा। उर्वशी दीर्घ जीवन दे।'

लेकिन अगली ही ऋचा में स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। उर्वशी कहती है, 'मैं, प्रारंभकर्ता (नए जीवन का प्रारंभ करने वाली) ने, उसी दिन तुझे चेतावनी दी थी। तूने मेरी एक न सुनी, अब तू इतना भोला बनकर क्यों बोलता है? '

पुरुरवा अनुनय-विनय करता है कि उसका बेटा अपने बाप के लिए रोएगा, आंसू बहाएगा, तो जवाब में उर्वशी कहती है- 'मेरे पवित्र पद का ध्यान रखते हुए वह नहीं रोएगा।...अपनी नियति की ओर जा ओ मूर्ख, तू मुझतक नहीं पहुंच सकता।'

पुरुरवा पहले झींखता हुआ विलाप करता है- 'स्त्रियों के साथ मित्रता नहीं हो सकती, उनके हृदय लकड़बग्घों के हृदय जैसे होते हैं', और फिर शांत हो जाता है- 'मैं, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, वायुमंडल को अपने विस्तार से भर देने वाली, आकाश पार करने वाली उर्वशी के आगे नतमस्तक हूं। सभी सत्कर्मों का पुण्य तुम्हारा हो, पलट जाओ, मेरा हृदय (भय से) उत्तप्त है।'

उर्वशी के इस कथन के साथ प्रकरण जिस तरह अचानक शुरू हुआ था, उसी तरह समाप्त हो जाता है- 'ये देवता तुझसे यही कहते हैं, इला के बेटे; अब तेरी मृत्यु निश्चित है। तेरी संततियां देवताओं को बलि अर्पित करती रहेंगी, लेकिन तू स्वयं स्वर्ग में आनंद करेगा।'

पूरा प्रसंग एक नजर में इतना बौखला देने वाला है कि अति प्राचीन समय में भी इसका कोई तार्किक अर्थ निकाल पाना कवियों और विद्वानों के लिए असंभव सिद्ध हुआ। यहां तक कि शतपथ ब्राह्मण में भी इसे तार्किक बनाने के लिए इसके साथ कुछ मनमानी शर्तें जोड़नी पड़ीं। इस ग्रंथ में उर्वशी पुरुरवा से प्रेम करती है लेकिन उसे अपना पति इस शर्त के साथ ही स्वीकार करती है कि पुरुरवा को वह नग्न अवस्था में कभी नहीं देखेगी।

दोनों काफी समय तक साथ रहते हैं और उनका एक बच्चा भी होता है लेकिन गंधर्व उसे वापस ले जाने पर अड़े हुए हैं और ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि पुरुरवा की नग्नता एक बार उर्वशी के सामने बिजली की तरह कौंध जाती है। उसी क्षण उर्वशी उसे छोड़कर चली जाती है। एक दिन दुखी पुरुरवा एक झील के किनारे टहल रहा है, तभी हंसरूपधारिणी उर्वशी उसके सामने प्रकट होती है और दोनों के बीच उक्त ऋग्वैदिक संवाद जैसी ही बातचीत होती है।

देश-दुनिया में इस विचित्र ऋग्वैदिक प्रसंग की- जिसमें कहीं यह तक नहीं बताया गया है कि पुरुरवा और उर्वशी कौन है, उनके बीच यह बातचीत क्यों हो रही है, इसका आगाज क्या है और इसका अंजाम क्या हुआ- विभिन्न काव्यशास्त्रीय, भाषाशास्त्रीय और नृतत्वशास्त्रीय व्याख्याएं की गई हैं, लेकिन अपनी किताब में कोसांबी कीथ, गेल्डनर, ओल्डेनबर्ग और मैक्समूलर का हवाला देते हुए उन्हें ठोस तर्कों के आधार पर सिरे से नकार देते हैं।

मैक्समूलर के यहां इस प्रसंग को प्रतीकात्मक बताते हुए इसे मात्र सूर्योदय की गाथा बताया गया है, जबकि कीथ के यहां इसे मनुष्यों और स्वर्गिक स्त्रियों के अंतर्संबंध को लेकर दुनिया भर की सभ्यताओं में मौजूद कथाओं की श्रृंखला में ही एक कड़ी माना गया है। ओल्डेनबर्ग मानते हैं कि यह प्रसंग इतनी बौखलाहट पैदा करने वाला इसलिए है क्योंकि वेदों के स्मृति आधारित संकलन में बीच के गद्यांश कहीं खो चुके हैं।

इन विद्वानों की तुलना में कोसांबी की अपनी व्याख्या पद्धति अटकलबाजियों से परहेज करने वाली, अत्यंत सरल लेकिन अपने निष्कर्षों में चौंकाने वाली है। इस पद्धति का जिक्र वे इन शब्दों में करते हैं- 'पाठ के यथासंभव शाब्दिक अर्थ पर टिके रहते हुए सभी विरोधाभासों को जहां तक हो सके, अंत-अंत तक अनसुलझा ही छोड़ दिया जाए, और फिर संपूर्ण का कोई बोध ग्रहण करने का प्रयास किया जाए।'

इस पद्धति के आधार पर कोसांबी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उर्वशी से एक संतान होने के बाद पुरुरवा की बलि दी जानी है। उपरोक्त संवाद में वह उर्वशी से अपने प्राणों की भीख मांग रहा है, जिसका अनसुना होना तय है। कोसांबी के अनुसार यह एक आदिम कर्मकांड, एक उर्वरता का मिथक है, जो दुनिया भर के नृतत्वशास्त्रियों के लिए बड़ी जानी-पहचानी चीज है।

उर्वरता की देवी या मातृदेवी का प्रतिनिधित्व उसकी पुजारिन ही किया करती थी। किसी सर्वांग-संपूर्ण, सर्वगुणसंपन्न पुरुष को एक साल के लिए उसका पति चुना जाता था और फिर उसकी बलि दी जाती थी। यह कर्मकांड वैदिक युग के आगमन तक कालातीत हो चुका होगा, लेकिन उसका मिथक जीवित रह गया होगा।

यानी कोसांबी की व्याख्या के मुताबिक ऋग्वेद का उर्वशी-पुरुरवा प्रसंग दरअसल पूर्व वैदिक कबीलाई समाज की पुजारिन और उसके पति के बीच का संवाद है, जिसका उपयोग वैदिक युग में किसी अनुष्ठान विशेष पर खेले जाने वाले नाटक की तरह किया जाता रहा होगा। यहां कोई चीज अगर गायब है तो सिर्फ स्टेज डाइरेक्शन के नोट्स, न कि कथा का कोई हिस्सा, जैसा कि ओल्डेनबर्ग मानते हैं। अध्याय के अंत में कोसांबी 'विक्रमोर्वशीयम्' पर लौटते हैं, इस टिप्पणी के साथ कि कालिदास ने अपने नाटक में अपनी सभ्यता के सबसे पुराने नाटक की ही पुनर्प्रस्तुति का प्रयास किया है।

Tuesday, November 13, 2007

उधर नंदीग्राम इधर कोसांबी

कुछ समय पहले जैसे निगेटिव वाइब्स अभय को तंग कर रहे थे, वैसे ही इधर कुछ दिनों से मुझे भी तंग करने लगे थे। अनिल भाई के साथ खामखा की एक अरुचिकर बहस और इस बहस से बिल्कुल अलहदा, किसी दूसरे ही छोर से न जाने किस वजह से कुछ मित्रों का मेरी गैरमौजूदगी में मुझे कुछ भला-बुरा कहना इसकी वजह बना। अपने भीतर खुद को नायक या खलनायक महसूस करना, दोनों ही मेरे लिखने-पढ़ने में बाधक होते रहे हैं। अब यही मेरी सामाजिकता है। मित्रों, लिखने-पढ़ने के अलावा कुछ और कर पाने की स्थिति में मैं अभी नहीं हूं। अगर अपने लिखे-पढ़े में मैं आपको कोई नुकसान पहुंचाऊं तो मुझे जी भरकर गरियाएं, लेकिन अगर आपकी नाराजगी सिर्फ इस वजह से है कि मैं आपके साथ उठ-बैठ नहीं पाता या आपकी किसी और उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाता, तो कृपा करके मुझे माफ कर दें। ऐसा मैं कोई अपनी मर्जी से या इसे बहुत अच्छा समझकर नहीं कर रहा हूं। मैं बहुत बुरी तरह घिर गया हूं। नौकरी मेरी जान ले ले रही है और जिंदा रहने का इसके अलावा और कोई जरिया भी मेरे पास नहीं है- करूं तो क्या करूं।

वाम आंदोलन के साथ मेरा जुड़ाव किसी वैचारिक बहस-मुबाहसे तक सीमित नहीं है। जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा इस आंदोलन में गया है। आज भी सबसे ज्यादा खुशी और सबसे ज्यादा दुख इस आंदोलन से जुड़ी खबरों से ही होता है। नंदीग्राम में सीपीएम के लोग और उसकी सरकार जो कर रहे हैं, वह खून खौला देने वाला है। लेकिन मेरे लिए इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं है। नक्सल आंदोलन की शुरुआत से ही इस पार्टी का ठीक यही रवैया देखा जा रहा है। करीब दस साल पहले नदिया जिले में पोलिंग के समय लिबरेशन के असर वाले एक गांव पर हमला करके उन्होंने कई लोग मार दिए थे और फिर अस्पताल में भर्ती पांच लोगों की अस्पताल में ही घुसकर हत्या कर दी। जो सुमन चट्टोपाध्याय आज पश्चिम बंगाल में टीवी पर अकेले सीपीएम विरोधी सांस्कृतिक स्वर बने हुए हैं, उनकी पहली सार्वजनिक उपस्थिति- बांग्ला पॉप म्यूजिक के दायरे से निकलकर- इसी घटना में देखने को मिली थी।

अपने और पराये का एक ऐसा बोतलबंद नजरिया इस पार्टी ने बना रखा है कि बिल्कुल आंख के सामने घटित हो रही घटनाएं इसके नेतृत्व को दिखाई नहीं देतीं, या उनकी मनमानी व्याख्याएं करके यह अपने कैडर या जनाधार के सामने पेश कर देता है। 1991 में पटना में तिसखोरा जनसंहार हुआ था, जिसमें कुम्हार और चमार बिरादरी के पंद्रह गरीब किसान और खेतमजदूर मारे गए थे। इस घटना में तब लालू यादव के करीब जाने की कोशिश कर रहे कांग्रेसी नेता रामलखन सिंह यादव का नाम अखबारों में खुलेआम लिया जा रहा था। सीपीएम पोलिट ब्यूरो ने इस घटना की जांच की जिम्मेदारी अपने दो युवा नेताओं प्रकाश करात और सीताराम येचुरी को सौंपी थी। मैं 'लोकलहर' में इस रिपोर्ट के अंश पढ़कर दंग था, जिसमें कहां गया था कि माले के लोग इस जनसंहार में रामलखन यादव का नाम सिर्फ इसलिए ले रहे हैं कि वे कांग्रेस में रहते हुए मंडल संस्तुतियों के पक्षधर हैं।

मुझे पक्का यकीन है कि सोवियत संघ के फर्जी तामझाम की तरह यह पार्टी भी भारत के वामपंथी आंदोलन के लिए बड़ी खतरनाक भूमिका निभाने जा रही है। देर-सबेर बाकी के दो राज्यों की तरह प. बंगाल में भी इसकी सरकार ढोल बजाकर जाएगी, लेकिन इसका धक्का भारत के वाम आंदोलन को कुछ यूं लगेगा, जैसे अबततक इसी ने यहां इस आंदोलन की धर्म ध्वजा थाम रखी हो।

संतोष की बात सिर्फ एक है कि आजकल डीडी कोसांबी को पढ़ना हो रहा है- और उन्हीं पर कुछ लिखना भी। अगर भारत में श्रीनिवास रामानुजन जैसे दो-चार आधुनिक जीनियसों की सूची आपको बनानी हो तो इसमें एक नाम कोसांबी का भी शामिल करना न भूलिएगा। क्या कमाल का विषय है गणित और क्या कमाल के आदमी हैं कोसांबी, जो यहां से अर्जित दृष्टि को प्राचीन भारतीय इतिहास की गुत्थियां सुलझाने में कुछ यूं आजमाते हैं कि डैन ब्राउन जैसे कोड-क्रैकर फिक्शन राइटर पानी भरें। आज ही समकालीन जनमत के लिए कोसांबी पर डेढ़ हजार शब्दों का एक पीस लिखा। उसका सार-संक्षेप कल यहां देना चाहूंगा, बशर्ते आपको अच्छा लगे!

Sunday, November 4, 2007

गेरुआ चांद

रोशनियां बहुत तेज हैं

और तुम्हारे सो जाने के बाद भी

नींद की छाती पर मूंग दलती

ये यहीं पड़ी रहती हैं

फिर भी कैसा चमत्कार कि

बची रह जाती है

सलेटी अंधेरों वाली

कोई कुहासे भरी रात



मशीनी ध्वनियां

कभी चिढ़कर तो कभी चुपचाप

चौबीसो घंटे सिर ही खाती रहती हैं

फिर भी कैसा अचरज कि

बची रह जाती है

दोनों कानों के बीच

रात के तीसरे पहर सीले पत्तों पर

महुआ टपकने की आवाज



आधी रात गए

तुम्हारी बालकनी के ऊपर

उग रहा होता है जब

नींद में डूबा गेरुआ चांद

जमीन पर सरक रहा होता है

नम घासों के सिर सहलाता

पंचर पहिए सा बेढब पवन

तब तुम्हीं कहो-

घर से इतनी दूर खींच लाई

इतनी बड़ी कामयाबियों के बाद

तुम यहां क्या कर रहे होते हो?



बुझी-बुझी सी नजर में

तेरी तला..श लिए

भटकते फिरते हैं

हम आज अपनी ला..श लिए

कोई भटकती हुई धुन

यहां अपने होने भर से चौंकाती

पहाड़ों में अटकी धुंध सी

तुम्हारे भीतर घुमड़ती है



कोई नाम गुम जाता है

कोई चेहरा बदल जाता है

आवाज भी कोई नहीं बचती

जिससे तुम्हारी पहचान हो

छब्बीस साल पहले फूटा दायां घुटना

आज ही टपकना था

खिड़की के पल्ले से सिर में बने गुम्मे पर

हाथ भी बार-बार अभी ही जाना था



'टु हेल विद यू-

आखिर किस हक से

अपने प्रेमी के सामने

तुम मुझे डांट सकती हो!'

दुख की रात याद की रात

खीझ में कह जाते हो कुछ ऐसी बात-

किसी के सामने जो कभी कही नहीं जानी



सुनो,

शीशे की सिल में पड़े बुलबुले जैसी

इस तनहा रात की बालकनी में

तुम अकेले नहीं हो

इतनी दूर से अपनी औचट नींद में

तुम्हारे ही इर्द-गिर्द घूमता

न जाने कौन से उपकार के लिए

तुम्हें शुक्रिया कहता कोई और भी है-

जिसकी आवाज मैं यहां तुमसे मुखातिब हूं